29/02/08

विनोद भारद्वाज (१९८२/विष्णु खरे)

८ अक्टूबर १९४८ को लखनऊ में जन्मे विनोद भारद्वाज कवि होने के अलावा जाने-माने कला-समीक्षक भी है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया, दिनमान और नवभारत टाइम्स में लंबे समय तक पत्रकारिता. कविता संग्रह जलता मकान और होशियारपुर तथा कला-सिनेमा पर कई पुस्तकें प्रकाशित. १९८२ में संस्कृति पुरस्कार.

निर्णायक विष्णु खरे का मत : गहरी सामाजिक टिप्पणी, असंदिग्ध प्रतिबद्धता, बहुआयामी दृष्टि तथा भाषा एवं शिल्प पर विलक्षण नियंत्रण


हवा

शीरे की गंध में डूबा
एक गाँव
मिल का मनेज़र खुश है कि चीनी के बोरों पर
सर रख कर वह ऊँघ सकता है

काम पर जाने को भागते
फटिहल कारडों को पंचिंग मशीन में फंसाते लोग
मिल के उस शोर में भूल जाते हैं
रसोईघर में से आने वाली ढेरों शिकायतें कि बर्तनों पर
जमने वाली धूल
उनका रंग बदलती है

शीरे की गंध में डूबे
गाँव के लोग सूंघ नहीं पाते
मिल मनेज़र के ख्याल में
यही बहुत है कि वे सुन लेते हैं

झुलसे हुए खेतों की रोशनी में दिखते उस
रास्ते में साईकिल खींचता नौजवान
गुस्सा हो जाता है
कीचड में पहिया धंसा कर
बताता है एक आदमी की कहानी
पचास साल पहले मर चुके आदमी की कहानी
जो लड़ा था
उसने किए थे आन्दोलन
एक आदमी था हमारे गाँव में

हवा और शीरे की गंध में
उसके बाल उड़ते हैं
उसे पूरी उम्मीद है कि हवा की गंध को
वह थोड़ा बचा सकेगा

बहुत थोड़े से पदों से टकराकर
जो एक जले हुए गड्ढों वाले खेत में
गायब हो जाती है

एक धर्मात्मा की कृपा से
उस उजाड़ के पुराने मन्दिर के
सूखे तालाब में
पत्थर के खम्भों के पलस्तर की सीलन से टकरा कर
हवा उस नौजवान के सीने में
उतर जाती है
हवा जिसमे बड़ी तेज गंध है
शीरे की

3 comments:

अजित वडनेरकर said...

कुछ अपनी लिखें अपने ब्लाग पर।
हालांकि ये अच्छी कविता है।

ऊब बहुत महत्वपूर्ण होती है सृजन के लिए।
मुझे पहचाना या नहीं? जयपुर में मेरे अभिन्न संजीव मिश्र के घर हुई मुलाकात याद करें। सन् 2004।.

Bahadur Patel said...

bahut achchha hai.isi ke sath apana kahane ke liye ek blog aur banayen. 2000 me apako bhi bharat bhushan mila hai. unaki mej itni purani thi ki usaka koi vartman nahin tha.bahuvachan(1999) me aai thi. bahut achchhi kavita hai use bhi padhawaiye.

सुशीला पुरी said...

जी बिलकुल ...........मै भी अजित वडनेकर जी के साथ हूँ .....आपकी ई पत्रिका की भी पाठक हूँ .